भारतवर्ष की अनोखी और अध्भुत वास्तुकला :- भारत वर्ष में केवल ताजमहल को ही अजूबा मान लेना उचीत नहीं होगा, क्यों की भारत में ऐसे अगणित अजूबे मौजूद है जिनका दूसरा स्वरूप कही नहीं बना है और ना ही बन सकता।
भारत देश की पहचान सदैव उसकी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक विरासत रही है। यह भी सनातन सत्य है कि भारत में एक समृद्ध प्राचीन वास्तुकला भी थी। आज आधुनिक भारत में समकालीन वास्तुकला भी तेजी से विकसित हो रही है।
आज जब मैं पीछे मुड़कर मेरी यात्राओं की विवेचना करूं तो ऐसी कई स्मारकों की छवि मेरे मानसपटल पर उभर कर आती हैं जिनकी अभियांत्रिकी कौशल ना केवल प्राचीन भारतीय वास्तुकला में, तथापि आधुनिक समकालीन भारतीय वास्तुकला के रूप में भी अचंभित करता है।
इन स्मारकों को हम अधिकतर कला एवं इतिहास के पुलिंदों में लिपटे ही देखते आये हैं। इनकी वास्तुकला एवं शिल्पकारी में हम इतने खो से जाते हैं कि इनकी संरचना एवं अभियांत्रिकी कौशल का स्मरण ही नहीं रहता। या यह कहा जाये, हमारे प्राचीन रचनात्मक अभियंता एवं वास्तुविद चाहते थे कि उनकी प्रतिभा अदृश्य रहे। क्या यह सर्वोत्तम संरचना नहीं, जहां आप केवल उसकी सुन्दरता में आत्मविभोर हो जाएँ तथा उसके पीछे की जटिल तकनीक एवं कठोर परिश्रम छुपे रहें?
जब मैं भारतीय वास्तुकला के अभियांत्रिकी अचंभों के विषय में विचार कर रही थी, मैंने और अधिक सुझावों के लिए फेसबुक एवं ट्विटर की ओर दृष्टी डाली। अधिकतर लोगों ने अभियांत्रिकी अचंभों के बजाय केवल भारतीय वास्तुकला पर आधारित संरचनाओं के विषय में ही विचार व्यक्त किये। मैं समझ गयी कि वे भी उन्ही तथ्यों की अनदेखी कर रहे थे जिन्हें मैं भी अब तक अनदेखा करती आयी हूँ। पर अब नहीं!
आईये एक बार फिर पीछे मुड़कर उन सभी स्मारकों पर दृष्टी डालते हैं जिनकी अप्रतिम सुन्दरता एवं वास्तुकला के पृष्ठभाग में अति उत्कृष्ट अभियांत्रिकी कौशल्य एवं नवोन्मेष है।
एलोरा की कैलाश गुफा
मेरे विचार से एलोरा की अखंड चट्टान से काटकर बनाये गये कैलाश मंदिर से अधिक उत्कृष्ट अभियांत्रिकी कुशलता अन्य किसी भी स्मारक में नहीं है। धरती की सतह पर स्थित एक विशालकाय चट्टान को ऊपर से काटते हुए एक रथ के आकार का विशाल मंदिर बनाना, वह भी सतह से नीचे की ओर, यह एक अभियांत्रिकी अचम्भा नहीं तो और क्या है!
मंदिर के चारों ओर, गलियारों के स्तंभों की भारोत्तोलन क्षमता ऐसी है कि उन पर मंदिर का भार सम्पूर्ण रूप से संतुलित है। आश्चर्य होता है कि उस काल में भी वास्तुविदों एवं अभियंताओं को चट्टानों के विषय में उत्तम ज्ञान था। उस काल में उपलब्ध औजारों द्वारा कठोर ग्रेनाइट को काटने का कार्य आसान नहीं रहा होगा। यह ऐसी संरचना थी जिसमें चूक के लिए स्थान नहीं था। छोटी सी चूक और सम्पूर्ण मेहनत व्यर्थ! छोटी-बड़ी किसी भी जोड़-तोड़ का विकल्प उनके पास नहीं था। मैं सोच में पड़ जाती हूँ, क्या सही में उनसे कोई भी चूक नहीं हुई होगी? या उनकी अभियांत्रिकी कुशलता उन्हें सुधारने अथवा छुपाने में सक्षम थी!
मेरी चाहत सदैव रहती है कि कदाचित मैं उस वास्तुविद से मिल पाती जिसने चट्टान काटकर मंदिर बनाने की संकल्पना की होगी। ऐसी कहावत है, प्रत्येक शिला में मंदिर होता है, केवल अनावश्यक को हटाने की आवश्यकता है। एलोरा का कैलाश मंदिर इसका जीता जागता उदाहरण है।
आपको स्मरण करा दूं, बादामी गुफाओं को भी इसी शैली में उत्कीर्णित किया गया है।
सिंधुदुर्ग का समुद्री दुर्ग
सिंधुदुर्ग का अर्थ है, समुद्र के भीतर दुर्ग। मैंने एक दो बार इस दुर्ग के दर्शन किये थे। समुद्र में नौका द्वारा हिचकोले खाते हुये इसके प्रवेश द्वार तक पहुँची थी। जब मुझे यह ज्ञात हुआ कि दुर्ग समुद्र के खारे जल में लगभग 400 वर्षों से खड़ा हुआ है, तब मुझे अनुभूति हुई कि यह एक अभियांत्रिकी अचम्भा ही है!
समुद्री तटीय क्षेत्रों में खारे जल की आर्द्रता प्रत्येक वस्तु में जंग लगा देती है, उसे खोखला बना देती है। फिर इस सिंधुदुर्ग की नींव अब तक कैसे दृड़ता से खड़ी है! इसका उत्तर निहित है हज़ारों टन सीसे में, जो इसकी नींव में डाली गयी थी। दुर्ग के प्राचीर में लगभग 45000 कि.ग्रा. लोहा है। इसका निर्माण जिस काल में हुआ, उस समय इतनी मात्रा में पिघले सीसे को समुद्र के बीच कैसे ले गए होंगे?, मैं सोच कर विस्मित हो जाती हूँ।
इसका गुप्त प्रवेश द्वार एक अद्भुत वास्तुकला है। आक्रमणकारी शत्रु दुर्ग के चारों ओर घूमते रह जाते होंगे किन्तु उन्हें मुख्य द्वार समझ नहीं आता होगा। इस दुर्ग का एक और अनोखापन है, खारे पानी के बीच स्थित दुर्ग के भीतर मीठे जल का कुआं!
दिल्ली का लोटस टेम्पल अथवा कमल मंदिर
मैं जब भी हवाई जहाज से दिल्ली जाती हूँ, ऊपर आकाश से नीचे कमल मंदिर को ढूँढती रहती हूँ, विशेषतः रात्रि के समय। रात्रि के समय बिजली की रोशनी में जगमगाते कमल मंदिर को देखने से बेहतर दृश्य नहीं! आधुनिक भारतीय वास्तु का कदाचित यह सर्वोत्तम उदाहरण है।
प्रातःकालीन खुलते हुए कमल के समान इसकी संरचना है जिसमें संगमरमर की 24 पंखुड़ियाँ, तीन परतों में, बिना एक दूसरे का आधार लिए खड़ी हैं। किसी भी दिशा से इसे देखें, इसकी सुन्दरता में कमी नहीं आती है। यह आपको मंत्रमुग्ध कर देती है। पंखुड़ियाँ अपने भीतर 40 मीटर ऊंचा विशाल कक्ष समेटे हुए हैं जिसमें 2500 लोग एक साथ समा सकते हैं।
हमारे जीवनकाल में निर्मित, आधुनिक भारतीय वास्तुकला की कुछ संरचानाओं में से एक है यह कमल मंदिर। यह उन कुछ स्मारकों में सम्मिलित है जो संपूर्णतः सौर ऊर्जा द्वारा संचालित है।




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